April 29, 2024

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विवेकानंद के विचार ही कोरोना महामारी के बीच लोगों को दिला सकती है मानसिक अवसाद से निजात !

  • BY – MOHAMMAD DANISH

भारतीय चिंतन परम्परा और आधुनिक भारत के जीवंत प्रतिनिधि स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) के उपरोक्त उद्गार की व्याख्या के लिए भारतीय दर्शन की उस महान विचार-दृष्टि से परिचित होना  नितान्त आवश्यक है, जो विश्व कल्याण और मंगलभाव की भावना से ओतप्रोत होकर विकसित हुई और सम्पूर्ण मनुष्यता को एक परिवार या एक ईकाई के रूप में संदर्भित करती हैl

 

भारतीय दर्शन की अद्वितीय मनीषा ने बहुत पहले ही इस प्रसंग में संस्कृत में एक श्लोक की रचना की थी-

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम

उदारचरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम l”

                               -(महोपनिषद,अध्याय 4 ,श्लोक71)   

तात्पर्य यह कि यह मेरा है, यह दूसरे का है, ऐसी सोच तो संकुचित चित्त वाले व्यक्तियों की होती है, इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह संपूर्ण धरती ही एक परिवार की तरह है l बताने की जरूरत नहीं है कि इस सुप्रसिद्ध श्लोक की मूल भावना मनुष्यता के उस सार्वभौमिक एकीकरण में निहित है जिसका सूत्र प्रेम, स्नेह, करुणा, सौहार्द्र और सहृदयता जैसे मनोभावों से जुड़ा होता हैl

अपने और पराये का भेद वास्तव में हमारी मनोवृत्तियों में बसे उन संस्कारों पर आधारित है जिनका सम्बन्ध पाश्विक प्रवृत्तियों से हैl सभ्यता का इतिहास और विकास क्रम इस बात का साक्षी है कि आदिम मानव से लेकर आधुनिक मानव की उपलब्धियों तक सबमें अन्योन्याश्रयी सम्बन्ध, सहयोगी भावना और सामूहिक एकता की शक्ति का अथक योगदान रहा हैl इन प्रयत्नों के मूल में जिस एक भावबोध ने पूर्ण रूप में मानव समाज को सींचा है, वह है प्रेम का भाव l प्रेम अर्थात दया ,ममता करुणा जैसे संवेदी गुणों से ओतप्रोत होनाl प्रेम अर्थात ‘स्व’ को ‘परम’ में विलीन कर देना ,’व्यष्टि’ का ‘समष्टि’ में समाहित हो जाना l

अपने इन्हीं गुणों के कारण प्रेम ऊँच- नीच के भेदभाव को मिटा देता है, भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण कर देता है और ह्रदय के भावों का साधारणीकरण कर आध्यात्मिक और मानसिक स्तर पर एक समतामूलक समाज की परिकल्पना को साकार करता है l इसके उलट स्वार्थ की प्रवृत्ति हमें सिर्फ स्वयं तक सीमित कर देती हैl यह लगातर हमारी चिन्तन क्षमता, अनुभव संसार को सीमित करती जाती है l स्वार्थ की इसी भावना से मनुष्य  असामाजिक होता चला जाता है और अंततः असीमित लालसाओं, अतृप्त इच्छाओं की कुंठा से ग्रसित होकर इर्ष्या, छल ,कपट आदि का शिकार बन जाता है l

जहाँ प्रेम हमें परमसत्ता से एकाकार कर देता है तो वहीँ स्वार्थ हमें उस सत्ता से विच्छिन्न कर सांसारिक मृगतृष्णा में  भटका देता हैl इन्हीं अर्थ संदर्भों की पृष्ठभूमि में स्वामी विवेकानन्द (Swami Vivekananda) ने प्रेम सम्बन्धी अपने विचारों को प्रकट किया है –

“प्रेम विस्तार है,स्वार्थ संकुचन है इसलिए प्रेम जीवन का सिद्धांत है l वह जो प्रेम करता है जीता है, वह जो स्वार्थी है, मर रहा है इसलिए प्रेम के लिए प्रेम करो क्यूंकि जीने का यही एकमात्र  सिद्धांत है l”

प्रेम की महत्ता को साकार रूप स्वामीजी (Swami Vivekananda) ने 11 सितम्बर ,1893 को शिकागो की धर्म संसद में अपना संबोधन ‘अमेरिका के भाइयों और बहनों’ से शुरू कर प्रदान किया l भौतिकता की चकाचौंध में डूबी पश्चिमी दुनिया में पहली बार कोई व्यक्ति अपनी उदार वैचारिकी से पूरब और पश्चिम की दुनिया के मध्य एक ऐसे सशक्त सेतु का निर्माण कर रहा था, जिसकी बुनियाद में प्रेम और प्रेमपूर्ण सम्बन्धों का महाभाव अन्तर्निहित था और जिसके प्रभाव से भाषा, रंग, नस्ल, क्षेत्र एवं धर्म के सम्पूर्ण विभेद तिरोहित होकर प्रेम की पवित्रता से आबद्ध हो गये थे l चमत्कृत दुनिया ने यहीं से विवेकानन्द (Swami Vivekananda) को एक मूर्तिमान भारत, योद्धा संन्यासी के रूप में पहचानना शुरू कियाl

दरसअल स्वामी विवेकानन्द (Swami Vivekananda) प्रेम के ज्ञान और प्रेम के व्यवहार को इसलिए आवश्यक मानते हैं क्यूंकि इसी से संसार और मनुष्यता की भावना गतिमान हैl आज जब पूरी दुनिया कोरोना जैसी विनाशकारी महामारी से त्रस्त है, तब इन विचारों की महत्ता को आसानी से समझा जा सकता है l इस आपदाकाल में लाखों लोगों की जिंदगियां ख़त्म हो गयीं, करोड़ों लोग बेरोजगार हो गये ,पूरी दुनिया में उथलपुथल मच गयीl इसके फलस्वरूप मनुष्य मानसिक अवसाद का शिकार होकर हताशा के अँधेरे में खोता जा रहा है l इन नकारात्मक परिस्थितियों में जो संजीवनी मनुष्यता को नयी उर्जा दे सकती है वो निश्चित रूप से प्रेम हैl प्रेम ही हमें एक दूसरे को निःस्वार्थ सहयोग करने, हिम्मत बढाने, परोपकारी बनने तथा दूसरों की भावनाओं को समझने लायक बनाता है l स्वामीजी (Swami Vivekananda) के प्रेम सम्बन्धी विचार मनुष्यता की रक्षा के सूत्र हैं और इसीलिए प्रासंगिक भी हैंl वास्तव में प्रेम मानव को हर तरह के बन्धनों से मुक्त करता है और वास्तव में मुक्ति ही ‘विस्तार’ हैl

(मो. दानिश विवेकानंद पर शोध कर रहे हैं। वो कई अखबारों और वेबसाइट्स के लिए अपने लेख लिख चुके हैं। )