-प्रवीण कुमार मधु
आजादी के बाद से कई काले कानून बनाए गए हैं जिसमे गणतन्त्र स्थापित होने वाले वर्ष 1950 में ही निरोधक हिरासत अधिनियम पास कर दिया गया । उसके बाद 1971 में मीसा, 1980 में एनएसए, 1985 में टाडा और पोटा जैसे कानून बनाकर आजाद और लोकतान्त्रिक भारत के लोगों के जीवन और निजी आजादी को छिनने का प्रयास किया गया है । इन कानूनों का दुरुपयोग करते हुये राजनीतिक विरोधियों, सामाजिक एवं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, लेखकों, वकीलों, ट्रेड यूनियन के नेताओं एवं भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों को हिरासत में लेकर तत्कालीन सरकारों के द्वारा परेशान किया जाता रहा है ।
सरकार के बनाये कानूनों, योजनाओं एवं नीतियों का विरोध करना जनता का अधिकार भी है और उनका कर्तव्य भी है ताकि सरकारें निरंकुश नहीं बन सके और संविधानवाद या संवैधानिक लोकतंत्र जीवित रहे । संविधान की सर्वोच्चता को बहाल रखा जाना चाहिए । सरकारें आती जाती रहेंगी, उन्हें संविधान के दायरे में रहकर ही कार्य करने के लिए विवश बनाए रखना नागरिकों का परम कर्तव्य है ताकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था को खरोंच भी नहीं पहुँचे ।
डॉ कफील खान (dr kafeel released) का प्रकरण बहुत कुछ इसी नागरिक कर्तव्यों के निर्वहन का है । डॉ कफील खान (dr kafeel released) 2017 में गोरखपुर स्थित बाबा राघव दास चिकित्सा अस्पताल मे ऑक्सीजन की कमी से 60 बच्चों की दर्दनाक मौत के बाद प्रकाश में आए । डॉ कफील खान (dr kafeel released) उसी अस्पताल में काम करते थे । उन्होने उस समय अपनी सक्रिय भूमिका निभाते हुये कई बच्चों का जीवन बचाया मगर अफसोस कि 60 बच्चों की दर्दनाक मौत हो जाती है । उनके सराहनीय काम को नजरंदाज करते हुये उल्टे उन्हें इस घटना का दोषी मानकर निलंबित कर दिया जाता है लेकिन 2019 में उत्तर प्रदेश द्वारा नियुक्त सरकारी जांच समिति ने इन्हें सभी आरोपों से मुक्त कर दिया था और बच्चों की मौत के मामले में इन्हें निर्दोष माना था ।
इसके बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविध्यालय में सी॰ए॰ए॰ (CAA) एवं एन॰आर॰सी॰ (NRC) के खिलाफ बोलने की वजह से नेशनल सेक्युरिटी एक्ट (NSA) के तहत आरोपित करते हुये इन्हें पुनः हिरासत में लिया जाता है ।। डॉ॰ कफील खान को पब्लिक ऑर्डर को बनाए रखने में खतरा बताते हुये हिरासत मे रखा जाता है। उन्होने मोटाभाई शब्द का उल्लेख करते हुये अपने भाषण में कहा था कि ‘मोटाभाई हमको इंसान बनाने के बजाय हिन्दू मुसलमान बनाना चाहता है।‘ हम सभी अवगत हैं कि मोटाभाई गुजरात में बड़े भाई को कहा जाता है और हिन्दू मुसलमान नहीं बनकर इंसान बनने की अपील तो एक बेहतरीन बात है जिससे भारत की एकता और अखंडता को और मजबूत बनाया जा सकता है ।
नेशनल सेक्युरिटी एक्ट सेक्शन 3 (2) राज्य की सुरक्षा के खतरे के मद्देनजर राज्य को यह शक्ति प्रदान करता है कि वो किसी को भी हिरासत में ले सकता है अगर उसकी गतिविधियाँ राष्ट्र की सुरक्षा या पब्लिक ऑर्डर को भंग करने जैसा लगे ।
एक बड़ा प्रश्न यह है कि राष्ट्रीय सुरक्षा क्या है? नेशनल सेक्युरिटी एक्ट भी इस बात की न तो व्याख्या करता है कि और ना ही इसे परिभाषित करता है । क्या महज सरकार के द्वारा बनाए गए सी॰ए॰ए॰ एवं एन॰आर॰सी॰ कानून का विरोध करना पब्लिक ऑर्डर का भंग करना है या राष्ट्र की सुरक्षा पर हमला है ?
कई लोकतान्त्रिक देशों में सरकार के द्वारा बनाए गए कानूनों का विरोध, सरकारों का विरोध आदि आम बात है और यह उनका संवैधानिक अधिकार और कर्तव्य होता है कि वह सरकारों को निरंकुश होने से रोके उन्हें वैसे कानून बनाने से रोके जो देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था बनाए रखने में खतरा हो । नमक का कानून और रोलेट एक्ट, तीन कठिया कानून आदि का विरोध हमारे इतिहास का भाग रहा है, हमें अपने इतिहास जो अभी बहुत पुराना नहीं है उससे बहुत कुछ सीखने की जरूरत है । जयप्रकाश नारायण आंदोलन के द्वारा मीसा जैसे काले कानून और आपातकाल का पुरजोर विरोध किया गया था । हाल के दिनों में जीएसटी, एफडीआई आदि का भी विरोध किया गया था । इससे यह बात स्पष्ट होती है कि सरकार के द्वारा बनाए गए कानूनों, सरकारो का विरोध राष्ट्र के खिलाफ नहीं बल्कि राष्ट्र के हित में ही होता है । राष्ट्र की जनता का हित ही राष्ट्र का हित होता है । जनता के अधिकारों की अवहेलना करके राष्ट्र का हित कभी नहीं संभव है ।
कई बार सुनवाई के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के माननीय मुख्य न्यायधीश गोविंद माथुर और माननीय न्यायधीश सुमित्रा दयाल सिंह ने 42 पन्नों में अपना आदेश सुनाते हुये उन्हें बेल दे दी और उन्हे एनएसए के तहत दोषी नहीं माना । न्यायालय ने राज्य सरकार के उस दलील को खारिज कर दिया कि उच्च न्यायालय में अनुच्छेद 226 के तहत कार्यवाही करते हुये जिलाधिकारी के subjective satisfaction को चुनौती नहीं दी जा सकती है । उच्च न्यायालय ने साफ शब्दों में अपने आदेश में कहा कि जिलाधिकारी के subjective satisfaction न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत आते हैं और न्यायालय को उसकी समीक्षा का अधिकार है ।
न्यायालय ने यह भी कहा कि अगर यह समीक्षा के बाहर रहेगा तो बहुत ही खतरनाक होगा और बदनीयती की कारण मनमानी करते हुये कई लोगों को हिरासत में लेकर परेशान किया जा सकता है उनकी संवैधानिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता को कुचला जा सकता है । इसके साथ ही माननीय मुख्य न्यायधीश गोविंद माथुर ने संविधान को स्पष्ट करते हुये नेशनल सेक्युरिटी एक्ट को असाधारण और दुर्लभतम परिस्थितियों में उपयोग किया जाने कानून बताया । अनुच्छेद 21 की व्याख्या करते हुये उन्होने कहा कि यह नागरिकों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण संवैधानिक मौलिक अधिकार है, जिसे नेशनल सेक्युरिटी एक्ट के बदनीयती से इस्तेमाल करके खत्म नहीं किया जा सकता है । अनुच्छेद 21 के तहत किसी के जीवन और स्वतन्त्रता को तभी छिना जा सकता है जब कानून और उस कानून का उपयोग उचित हो, न्यायिक हो, औचित्यपूर्ण हो और कानून का उपयोग मनमाने तरीके से नहीं किया गया हो ।
आगे उन्होंने डॉ कफील खान के भाषण के सम्पूर्ण भाग पर गौर करते हुये कहा कि इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा और पब्लिक ऑर्डर को भंग करने की बात स्पष्ट नहीं होती है और ना ही सामाजिक अशांति या हिंसा भड़काने की बल्कि राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखने की बात कही गयी है अतः भाषण के कुछ अंश के आधार पर निर्णय नहीं किया जा सकता है । माननीय मुख्य न्यायधीश ने सर्वोच्च न्यायालय के खुदीराम दास के केस की चर्चा करते हुये जिलाधिकारी के subjective satisfaction की समीक्षा के लिए कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश डालें जो न्यायिक एवं औचित्यपूर्ण होने चाहिए ।
लोगों के जीवन, उनकी स्वतन्त्रता और संवैधानिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए लगातार संघर्ष करते रहने की आवश्यकता है ताकि सरकारे मनमानी नहीं कर सके और देश में समाज में कानून का राज स्थापित हो सके। कानून का राज स्थापित करके ही सही मानों में लोकतन्त्र की स्थापना की जा सकती है। डॉ॰ कफील खान को बेल मिलना कानून के राज को स्थापित करने की दिशा में एक सकारात्मक पहल के दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है और न्यायालय की भूमिका एवं स्वागत योग्य निर्णय की प्रशंसा की जानी चाहिए।
(प्रवीण कुमार मधु एक जाने माने पत्रकार हैं। वो कई समाचार पत्रों और ऑन लाइन पोर्टल पर अपनी बात निपक्ष रूप से लिखते रहे हैं। इस लेख में सभी विचार लेखक के अपने हैं)
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