April 25, 2024

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#TooMuchDemocracy यह कहना है नीति आयोग के CEO का… लेकिन क्या वाक़ई भारत में “कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है”?

BY– डॉ. यामीन अंसारी

नीति आयोग के CEO अमिताभ कांत भले ही मानते हों कि भारत में ‘कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है’, पर हमें तो एसा लगता है कि इस समय भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों की जो हालत है वह दुनिया के बड़े लोकतांत्रिक देशों में एक भारत के लिए अच्छे लक्षण तो क़तई नहीं कहे जा सकते। वैसे मैने यह लेख अमिताभ कांत के नेक विचार सामने आने से पहले लिखा था, पर इस समय देश की जो हालत है उसके लिए यह लेख पहले भी मौज़ूं था और उनके बयान के बाद भी मौज़ूं है।

लोकतंत्र शब्द के विभिन्न अर्थ और व्याख्याएं दी गई हैं। लोकतंत्र को राजनीतिक, नैतिक, आर्थिक और सामाजिक संरचना कहा जाता है। लोकतंत्र द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के आधार पर  हम एक सरकार, राज्य, समाज या विचारधारा का परीक्षण कर सकते हैं कि क्या यह प्रणाली या विचारधारा लोकतांत्रिक है या नहीं। जहां तक लोकतांत्रिक सरकार का संबंध है तो यह कहा जाता है कि “जनता के  द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन” ही लोकतांत्रिक सरकार है। लेकिन  विभिन्न युगों और परिस्थितियों में लोकतंत्र के उपयोग के साथ, यह शब्द  थोड़ा अधिक जटिल हो गया है। फिर भी  सामान्य रूप से लोकतांत्रिक सरकार एक ऐसी सरकार को संदर्भित करती है जिसमें जनता ही शक्ति और निर्णय लेने का स्रोत होती है। जनता ही निर्धारित करती है कि उन्हें किस प्रकार की सरकारी, प्रशासनिक, न्यायिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था पसंद है। सरकार की लोकतांत्रिक प्रणाली का एक रूप प्रतिनिधि सरकार होती है, जिसमें लोग अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं और उन्हें सत्ता की व्यवस्था सौंपते हैं। अब यह निर्वाचित सरकार या पार्टी पर निर्भर है कि वह उन लोगों के लिए कितनी लाभदायक साबित होती जिन्होंने उसे सत्ता सौंपी है। फिर वह सरकार अपने लोगों के लिए कितनी कारआमद रही, इसको जांचने और परखने का पैमाना यह है कि उस  मुल्क में आम लोगों को अपनी बात व्यक्त करने और सरकार की नीतियों की खुलकर आलोचना करने की स्वतंत्रता है या नहीं? क्या उस देश में एक मजबूत विपक्ष है या नहीं? क्या वहां कानून और संविधान का शासन है या जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला कानून लागू है? क्या अल्पसंख्यकों को उस देश में धार्मिक स्वतंत्रता है या नहीं?  चूंकि कानून की नज़र में हर कोई समान है, फिर वहां कानून अलग-अलग लोगों पर  अलग-अलग लागू होता है। क्या हर किसी की जान और माल सुरक्षित है या नहीं? क्या आर्थिक और सामाजिक न्याय है या समाज वर्ग प्रणालियों में विभाजित है? और इन सबसे ऊपर, उस देश में मीडिया स्वतंत्र या सत्ता के चंगुल में है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनको सामने रख कर हम अपनी लोकतांत्रिक सरकारों के कामकाज और उनके तौर-तरीकों को परख सकते हैं।

अब यदि हम इस संदर्भ में अपनी वर्तमान  सरकार के तौर तरीक़ों को देखें, तो हम पाएंगे कि वर्तमान सरकार उपरोक्त लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर खरी नहीं उतरती है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि “लोगों के द्वारा, लोगों के लिए, लोगों का शासन’ के सिद्धांत को उठा कर रख दिया गया है। इस समय जिन कानूनों के खिलाफ देश के किसान विरोध कर रहे हैं, इससे से पहले भी वर्तमान मोदी सरकार ने ऐसे कानून बनाए हैं या ऐसे कदम उठाए हैं कि इनका जिन लोगों (जनता) से सीधा संबंध था उन्हें बिल्कुल नज़रअंदाज़ कर दिया गया। न तो किसानों या उनके प्रतिनिधियों के साथ कोई परामर्श किया गया और न ही दूसरे वर्ग के साथ कोई बातचीत की गई। उदाहरण के लिए  जिस प्रकार हाल ही में लागू किए गए कृषि कानूनों पर किसानों या उनके प्रतिनिधियों से परामर्श नहीं किया, उसी प्रकार पिछले वर्ष तीन तलाक़ से संबंधित क़ानून बनाने से पहले मुसलमानों, उनके प्रतिनिधियों या शरिया विशेषज्ञों से कोई परामर्श या बातचीत नहीं की गई। लाखों मुसलमानों ने भारी विरोध और प्रदर्शन किया, लेकिन किसी  की एक नहीं सुनी गई। इसके बाद नागरिकता संशोधन विधेयक, एनआरसी और एनपीआर लाने की घोषणा हो या हाल ही में यूपी की आदित्यनाथ सरकार द्वारा पूर्ण रूप से काल्पनिक कथित जिहाद पर अध्यादेश हो या  फिर जम्मू और कश्मीर से धारा 370 और 35-ए समाप्त करना हो। या फिर उससे पहले नोटबंदी करने का निर्णय। इन सभी फैसलों में काफी समानता पाई जाती है। पहली तो यही कि जिन लोगों से संबंधित यह क़ानून बनाए गए या क़दम उठाए गए, न तो  उनसे कोई सलाह ली गई और न ही उन्हें विश्वास में लिया गया। दूसरी बात यह कि यदि सरकार के ये क़दम संबंधित वर्गों के कल्याण के लिए उठाए गए थे, तो वही वर्ग उनके खिलाफ क्यों विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं? फिर तो ‘लोगों द्वारा, लोगों के लिए, लोगों का शासन’ का सिद्धांत निरर्थक हो गया। क्या सरकार कोई भी आँकड़े प्रदान कर सकती है कि ट्रिपल तलाक के खिलाफ कानून लागू होने के बाद तीन तलाक के मामलों कितने प्रतिशत कमी आई है?

इसी प्रकार पिछले साल 11 दिसंबर को सरकार ने विवादास्पद नागरिकता संशोधन अधिनियम संसद में पेश किया और यह 11 जनवरी 2020 को उसे लागू कर दिया गया। इस बारे में भी कोई बहुत अच्छी रिपोर्ट नहीं हैं। 26 नवंबर को टीवी 9 ने एक ख़बर में बताया कि सीएए के भरोसे भारत आए  पाकिस्तानी हिंदू और सिख निराश हैं और वित्तीय परेशानियों और अन्य असुविधाओं के कारण लगभग 243 शरणार्थी वापस लौट जाएंगे। उन्हें वाघा सीमा से लौटने की अनुमति भी मिल गई है। अधिकारियों के अनुसार, पाकिस्तानी शरणार्थियों की वापसी  के अधिकांश प्रर्थनापत्र गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और दिल्ली से आए हैं। यह ध्यान रहे कि नागरिकता संशोधन अधिनियम लागू होने के उपरांत 31 दिसम्बर 2014 तक पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से भारत आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई (मुसलमान नहीं) शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता दी जाएगी। अभी यह मुद्दा समाप्त भी नहीं हुआ था कि NRC मुद्दा उठा दिया गया। NRC मतलब, नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स। पहले यह असम तक सीमित था, लेकिन मोदी सरकार ने बिना किसी स्पष्टीकरण के इसे पूरे देश में लागू करने की घोषणा कर दी। असम में  लगभग 19 लाख लोग NRC के तहत नागरिकता सूची  में अपनी जगह नहीं बना सके। बांग्लादेश की स्थापना के बाद से ही असम के लोगों का कहना था कि बड़ी संख्या में लोगों के आ जाने से उनकी पहचान खतरे में पड़ गई है। यह भाजपा के लिए एक राजनीतिक मुद्दा था, इसलिए उसने इस मुद्दे को ज़ोर शोर से उठाया, लेकिन जब अंतिम सूची तैयार की गई तो जो लोग इस सूची से बाहर हुए उनमें अधिकांश हिंदू ही थे। फिर भाजपा ने इसे मानने से इनकार कर  दिया। इसके बाद  भाजपा के लोग इससे संबंधित भिन्न भिन्न प्रकार के बयान देते रहे, जिससे यह मुद्दा पेचीदा होता गया। यह सच है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम भारत के नागरिकों के लिए नहीं है, परंतु NRC और CAA का विरोध इसलिए हुआ कि  गृहमंत्री अमित शाह ने ख़ुद अपने भाषणों और बयानों में नागरिकता संशोधन अधिनियम और NRC दोनों को एक दूसरे से जोड़ा।  लोगों में चिंता का एक और बड़ा कारण यह था कि मोदी ने एक सार्वजनिक सभा में कहा कि NRC पर अभी कोई बात नहीं हुई है, जबकि अमित  शाह ने संसद में खड़े होकर कहा कि एनआरसी आ कर रहेगा। इसके अलावा  मोदी सरकार ने नोटबंदी की घोषणा की। दावा किया गया कि यह क़दम काले धन को वापस लाने, जाली मुद्रा को बाहर निकालने, आतंकवाद और नक्सलवाद पर अंकुश लगाने, रिश्वतखोरी समाप्त करने आदि के  लिए उठाया गया है। पर इस फैसले के बाद जो आंकड़े सामने आए और जो ग़रीब और मध्यम वर्ग पर जो क़यामत गुज़री, वह सबके सामने है। एसे में यह कहा जा सकता है कि  मोदी सरकार उपरोक्त सभी निर्णयों में बुरी तरह विफल रही और साथ ही जिन लोगों के कल्याण का दावा किया गया वही इसका सबसे बड़ा शिकार बने।

किसानों से संबंधित तीन नए कृषि कानूनों का भी यही हाल है। सरकार कहती  है कि नए कृषि कानून देश के किसानों के कल्याण और उनके विकास और समृद्धि के उद्देश्य से लाए गए हैं। लेकिन किसान कहते हैं कि हमें ऐसा विकास और समृद्धि नहीं चाहिए। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह वास्तव में कृषि जगत में निजीकरण को बढ़ावा देने और अपने क़रीबी कॉर्पोरेट घरानों को बढ़ाने  के लिए हैं। लाखों किसान (पुरुष, महिलाएं, बूढ़े, बच्चे) इन कानूनों के खिलाफ सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। ‘दिल्ली चलो’ के बाद,  ‘भारत बंद भी हुआ’, लेकिन सरकार ने इसे अपने अहंकार का मुद्दा बना लिया है। यदि सरकार अपने इन सभी निर्णयों और क़दमों पर गंभीरता से पुनर्विचार करती है, तो उसे ख़ुद ही एहसास हो जाएगा कि ये निर्णय किसी स्वस्थ और सफल लोकतंत्र के लक्षण नहीं हैं। भले ही नीति आयोग के CEO अमिताभ कांत मानते हों कि भारत में ‘कुछ ज्यादा ही लोकतंत्र है’।

 (लेखक इंकलाब (उर्दू दैनिक) दिल्ली के रेज़िडेंट एडिटर हैं)